Class 12 Hindi Antra Chapter 14 Summary – Kachcha Chittha Summary Vyakhya

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कच्चा चिट्ठा Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 14 Summary

कच्चा चिट्ठा – ब्रजमोहन व्यास – कवि परिचय

प्रश्न :
ब्रजमोहन व्यास के जीवन एवं साहित्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन परिचय – पंडित ब्रजमोहन व्यास का जन्म इलाहाबाद में सन् 1886 में हुआ। पं० गंगानाथ झा और पं० बालकृष्ण भट्ट से उन्होंने संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया। व्यास जी सन् 1921 से 1943 तक इलाहाबाद नगरपालिका के कार्यपालक अधिकारी रहे। सन् 1944 से 1951 के ‘लीडर’ समाचार-पत्र समूह के जनरल मैनेजर रहे। 23 मार्च, 1963 को इलाहाबाद में ही उनका देहावसान हुआ।

रचनाएँ – ब्रजमोहन व्यास जी की प्रमुख कृतियाँ हैं-जानकी हरण (कुमारदास कृत) का अनुवाद, पं॰ बालकृष्ण भट्ट (जीवनी), महामना मदन मोहन मालवीय (जीवनी)। मेरा कच्चा चिट्ठा उनकी आत्मकथा है।

भाषा-शिल्प – लेखक ने इस आत्मकथा में आम बोलचाल की भाषा के साथ-साथ सरल, सहज खड़ी बाली का भी प्रयोग किया है। उनकी भाषा में देशज शब्दों की बहुलता मिलती है, किंतु तद्भव, तत्सम, विदेशी और अवधी भाषा के शब्दों का भी प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं स्थानीय भाषा और संस्कृत सूक्तियों का भी इस्तेमाल है। वे अनेक जगह संस्कृत की उक्तियों का प्रयोग कर अपनी बात का समर्थन करते हैं; जैसे –

“लभते वा प्रार्थयिता न वा श्रियम् श्रिया दूरापः कथमीप्सतो भवेत्।”

उनकी शैली में चित्रात्मकता, वर्णनात्मकता है, जो आत्मकथ्य को प्रभावी बना देती है। इसके साथ ही जगह-जगह मुहावरे, लोकोक्तियाँ भाषा को सुंदर, सार्थक एवं रोचक बनाती हैं।

Kachcha Chittha Class 12 Hindi Summary

व्यास जी की सबसे बंड़ी देन इलाहाबाद का विशाल और प्रसिद्ध संग्रहालय है, जिसमें दो हज़ार पाषाण मूर्तियाँ, पाँच-छह हज़ार मृण्मूर्तियाँ, कनिष्क के राज्यकाल की प्राचीनतम बौद्ध मूर्तियाँ, खजुराहो की चंदेल प्रतिमाएँ, सैकड़ों रंगीन चित्रों का संग्रह आदि शामिल हैं। उन्होंने संस्कृत, हिंदी और अरबी-फ़ारसी के चौदह हज़ार हस्तलिखित ग्रंथों का संकलन उसी संग्रहालय हेतु किया। पं० नेहरू को मिले मानपत्र, चंद्रशेखर आज़ाद की पिस्तौल इलाहाबाद संग्रहालय की धरोहर मानी जाती है।

पुरातत्व संबंधी संग्रहालय की विभिन्न धरोहर-सामग्री का संकलन बगैर विशेष व्यय के कर पाना ब्रजमोहन व्यास का अपना विशिष्ट कौशल है। लेखक 1936 ई० में कौशांबी की यात्रा के लिए गया। कौशांबी से वह पसोवे गया जो जैन धर्म का प्रसिद्ध तीर्थ-स्थान है। यहाँ के बारे में यह मान्यता थी कि यहाँ की एक पहाड़ी पर बुद्ध देव व्यायाम करते थे। यहाँ अशोक के एक स्तूप की भी किंवदंती है, जिसमें बुद्ध के केश तथा नखखंड रखे गए थे, परंतु आज पहाड़ी के सिवाय कुछ नही है।

गाँव से लेखक ने कुछ मृण्मूर्तियाँ, सिक्के तथा मनके इकट्ठे किए। कौशांबी लौटते समय एक गाँव में पेड़ के नीचे चतुर्मुख शिव की मूर्ति दिखाई दी, जिसे लेखक उठा लाया। कुछ दिनों बाद गाँववाले लेखक के पास आए और आराध्य की मूर्ति लौटाने के लिए प्रार्थना की। उन्होंने खाना-पीना भी छोड़ दिया था। लेखक उनकी आस्था से प्रभावित हुआ तथा मूर्ति को ससम्मान उन्हें वापस सौंप दिया।

उसी वर्ष वह दोबारा कौशांबी गया। वहाँ एक खेत में बोधिसत्व की आठ फीट ऊँची मूर्ति मिली। मूर्ति का सिर खंडित था। वह इसे ले जाने वाला था कि वहीं पास के खेत की बुढ़िया वहाँ आई और मूर्ति निकलवाने का हर्ज़ाना माँगा। लेखक ने उसे दो रुपये दिए तथा मूर्ति को संग्रहालय में ले आया। संग्रहालय में एक फ्रांसीसी ने बोधिसत्व मूरिं खरीदने में दिलचस्पी दिखाई। उसने दस हज़ार रुपये कीमत लगाए, परंतु लेखक ने इंकार कर दिया। वस्तुत: यह मूर्ति दुनिया की प्राचीनतम मूर्तियों में से एक थी। इसे कनिष्क ने अपने शासन के दूसरे वर्ष में स्थापित किया था। यह उस मूर्ति के पदस्थल पर खुदा था।

1938 ई० में कौशांबी में भारत सरकार का पुरातत्व विभाग मजूमदार की देख-रेख में खुदाई करवा रहा था। उस समय मजूमदार को पता चला कि हज़ियापुर गाँव में एक व्यक्ति के पास भद्रमथ का भारी शिलालेख है। वे इसे लेना चाहते थे, परंतु गाँव के ज़र्मींदार गुलज़ार मियाँ ने एतराज़ जताया। वह लेखक का भक्त था। भद्रमथ का शिलालेख लेने के लिए जब ज्रोर-ज़बरदस्ती की गई तो वे लोग फौज़दारी पर आमादा हो गए।

उन्होंने कहा कि यह शिलालेख इलाहाबाद के संग्रहालय के लिए पच्चीस रुपये में बिक चुका है। मजूमदार ने थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाई, परंतु कुछ नहीं हुआ। इस पर मजूमदार ने दीक्षित जी को बढ़ा-चढ़ाकर रिपोर्ट भेजी। इस पर दीक्षित जी ने लेखक को धमकी भरा पत्र लिखा। लेखक ने भी अपनी सफाई पेश की। बाद में पच्चीस रुपये में वह शिलालेख मजूमदार ने खरीद लिया।

कुछ समय बाद लेखक मैसूर की यात्रा पर गया। वहाँ से उसने आठ-दस चित्र, काँसे की मूर्तियाँ, सिक्के तथा रामेश्वरम् से ताड़-पत्र पर लिखी पोथियाँ लीं। इस प्रकार लेखक ने दो हज़ार पाषाण मूर्तियाँ, पाँच-छह हज़ार मृण्मूर्तियाँ, कई हज़ार चित्र, चौदह हज़ार हस्तलिखित पुस्तकें, हज़ारों सिक्के, मनके, मोहरें आदि एकत्रित कीं। अब संग्रहालय का भवन छोटा पड़ने लगा था। अलग भवन बनवाने के लिए अधिक धन की ज़रूरत थी। लेखक ने बोर्ड तथा संयुक्त प्रांत की सरकार की मंजूरी से संग्रहालय निर्माण कोष बनवाया। इस कोष में दो वर्ष में ही दो लाख रुपये जमा हो गए। डॉ० पन्नालाल के सहयोग से कंपनी बाग में एक भूखंड मिल गया। लेखक ने भवन-निर्माण के लिए पं० जवाहरलाल नेहरू से शिलान्यास करवाया और भवन पूर्ण हुआ।

अंत में लेखक उन सभी लोगों का धन्यवाद करता है, जिन्होंने इस संग्रहालय के निर्माण में सहायता की। लेखक ने डॉ० सतीशचंद्र काला को संग्रहालय का अभिभावक बनाकर संन्यास ले लिया।

कच्चा चिट्ठा सप्रसंग व्याख्या

1. ममँ कहीं जाता हूँ तो छूँछे हाथ नहीं लौटता। यहाँ कोई विशेष महत्व की चीज़ तो नहीं मिली पर गाँव के भीतर कुछ बढ़िया मुण्मूर्तियाँ, सिक्के और मनके मिल गए। इक्के पर कौशांबी लौटा। एक दूसरे रास्ते से। एक छोटे-से गाँव के निकट पत्थरों के ढेर के बीच, पेड़ के नीचे, एक चतुर्मुख शिव की मूर्ति देखी। वह वैसे ही पेड़ के सहारे रखी थी जैसे उठाने के लिए मुझे ललचा रही हो। अब आप ही बताइए, मैं करता ही क्या? यदि चांद्रायण व्रत करती हुई बिल्ली के सामने एक चूहा स्वयं आ जाए तो बेचारी को अपना कर्तव्यपालन करना ही पड़ता है । इक्के से उतरकर इधर-उधर देखते हुए उसे चुपचाप इक्के पर रख लिया। 20 सेर वज़न में रही होगी। “न कूकुर भूँका, न पहरू जागा।” मूर्ति अच्छी थी। पसोवे से थोड़ी-सी चीज़ों के मिलने की कमी इसने पूरी कर दी।

प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2 ‘ में संकलित पाठ ‘ कच्चा चिट्ठा’ से उद्धृत है। इसके लेखक ब्रजमोहन व्यास हैं। इस पाठ में लेखक ने प्रयाग में संग्रहालय स्थापित करने के लिए किए गए प्रयासों का रोचक शैली में वर्णन किया है।

इस अंश में लेखक ने कौशांबी और पसोवा में दुर्लभ वस्तुओं का वर्णन किया है।

व्याख्या – लेखक कहता है कि जब भी वह कहीं गया, कभी खाली हाथ नहीं लौटा। कौशांबी में उसे कोई विशेष वस्तु तो नहीं मिली, परंतु गाँव के भीतर कुछ बढ़िया मिट्टी की मूर्तियाँ, सिक्के तथा मनके मिल गए। वह इक्के पर सवार होकर दूसरे रास्ते से वापस लौट रहा था। उसे एक छोटे-से गाँव के पास पत्थरों के ढेर के बीच पेड़ के नीचे शिव की एक मूर्ति दिखाई दी, जिसके चार मुख थे। वह पेड़ के सहारे रखी थी। उसे देखकर लेखक का मन ललचा रहा था। वह अपनी स्थिति का वर्णन उदाहरण देते हुए करता है कि यदि चांद्रायण व्रत करती हुई बिल्ली के सामने एक चूहा स्वयं आ जाए तो वह किस प्रकार धैर्य धारण कर सकती है ? उसे चूहे पकड़ने का अपना धर्म तो निभाना ही पड़ेगा।

इसी प्रकार लेखक का काम पुरानी वस्तुओं का संग्रह करना है। वह इस दुर्लभ मूर्ति को देखकर खुद को रोक नहीं सका। उसने इक्के से उतरकर इधर-उधर देखा और चुपचाप उसे इक्के पर रख लिया। इस मूर्ति का वजन लगभग 20 सेर होगा। इस चोरी पर न तो कुत्ता भौँका और न ही पहरेदार जागा अर्थात् किसी को मूर्ति चोरी की खबर नहीं लगी। यह मूर्ति अच्छी थी। लेखक को पसोवे से जो थोड़ी चीज़ें मिली थीं, उसकी भरपाई इस मूर्ति के मिलने से हो गई।

विशेष :

  1. लेखक की मूर्ति चोरी का रोचक वर्णन है।
  2. “न कूकुर भूँका, न पहरू जागा’- लोकोक्ति का सुंदर प्रयोग है।
  3. मिश्रित शब्दावली है, जिसमें तत्सम, तद्भव और देशज शब्दों का सुंदर प्रयोग है।
  4. खड़ी बोली में सशक्त भावाभिव्यक्ति है।
  5. उद्धरण शैली में लेखक की सुंदर एवं दुर्लभ वस्तुओं के संग्रह करने की प्रकृति का सुंदर चित्रण है।

2. पाठक यह जानने के लिए उत्सुक होंगे कि आखिर इस मूर्ति में कौन-सा सुरखाब का पर लगा था जो दो रूपये में मिली और दस हज़ार रुपये उस पर न्योछावर कर फेंके जा रहे हैं। संभव है कि वे सोचते हों कि मूर्ति में तो केवल सिर नहीं है, (परंतु लेखक की बातें उससे भी एक पग आगे बेसिर पैर की हैं। पर बात ऐसी नहीं है।) यह मूर्ति बोधिसत्व की उन मूर्तियों में है जो अब तक संसार में पाई गई मूर्तियों में सबसे पुरानी है। यह कुषाण सम्राट कनिष्क के राज्यकाल के दूसरे वर्ष स्थापित की गई थी। ऐसा लेख उस मूर्ति के पदस्थल पर उत्कीर्ण है।

व्यास हैं। इस पाठ में लेखक ने प्रयाग में संग्रहालय स्थापित करने के लिए किए गए प्रयासों का रोचक शैली में वर्णन किया है।

इस अंश में लेखक ने पैसे लेकर मूर्ति न बेचने तथा उस मूर्ति की ऐतिहासिकता का उल्लेख किया है।

व्याख्या – लेखक बोधिसत्व की मूर्ति के बारे में बताता है कि उसने इस मूर्ति को दस हज़ार रुपये में बेचने से भी इंकार कर दिया। वह पाठकों की जिज्ञासा के बारे में बताता है कि इस मूर्ति में ऐसी कौन-सी विशेष चीज़ थी जो दो रूपये में खरीदी गई तथा उसके दाम दस हज़ार रुपये लगाए जा रहे हैं। यह भी संभव है कि उनकी यह धारणा हो कि इस मूर्ति में केवल सिर नहीं है। लेखक की बातें उससे भी एक कदम आगे बेसिर पैर की हैं। लेखक इस मूर्ति के बारे में बताता है कि यह मूर्ति बोधिसत्व की उन मूर्तियों में से एक है जो संसार में अब तक पाई गई मूर्तियों में सबसे पुरानी है। इस मूर्ति को कुषाण सम्राट कनिष्क ने अपने राज्यकाल के दूसरे वर्ष में स्थापित किया था। इस तिथि का उल्लेख उस मूर्ति के पदस्थल पर उत्कीर्ण लेख में है।

विशेष :

  1. ‘सुरखाब के पर लगना’ तथा ‘बेसिर पैर की बात होना’ मुहावरों का सुंदर प्रयोग है।
  2. भाषा प्रवाहमयी है।
  3. साहित्यिक खड़ी बोली में सशक्त भावाभिव्यक्ति है।
  4. मिश्रित शब्दावली है, जिसमें तद्भव, तत्सम शब्दों का सुंदर प्रयोग है।

3. मैं संग्रहकर्ता हैँ, आशिक नहीं। यही अंतर मुझमें और भाई कृष्णदास में है। वे संग्रहकर्ता भी हैं और आशिक भी। संग्रह कर लेने और उसे हरम (प्रयाग संग्रहालय) में डाल लेने के बाद मेरा सुख समाप्त हो जाता है। भाई कृष्णदास संग्रह करने के बाद भी चीज़ों को बार-बार हर पहलू से देखकर उसके सुख-सागर में डूबते-उतराते रहते हैं। यदि संग्रहकर्ता आशिक भी हुआ तो भगवान ही उसकी रक्षा करें।

प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित पाठ ‘कच्चा चिट्ठा’ से उद्धृत है। इसके लेखक ब्रजमोहन व्यास हैं। इस पाठ में लेखक ने प्रयाग में संग्रहालय स्थापित करने के लिए किए गए प्रयासों का रोचक शैली में वर्णन किया है।

इन पंक्तियों में लेखक ने अपनी तथा कृष्णदास की तुलना की है।

व्याख्या – लेखक अपने बारे में बताता है कि वह वस्तुओं का संग्रह अवश्य करता है, परंतु उनका दीवाना नहीं है। भाई कृष्णदास वस्तुओं के संग्रहकर्ता तथा आशिक भी हैं। दोनों में यही मूलभूत अंतर है। लेखक वस्तुओं को इकट्ठा करता है और उसे प्रयाग संग्रहालय में रखने के बाद उन्हें प्रेम नहीं करता। उसकी इच्छा समाप्त हो जाती है। भाई कृष्णदास का स्वभाव उलटा है। वे वस्तुओं का संग्रह तो करते ही हैं, परंतु उनके हर पहलू को देखकर, उनके सुख-सागर में डूबे रहते हैं। यह स्थिति दीवानगी के स्तर तक पहुँच जाती है। संग्रहकर्ता आशिक हो जाए तो ईश्वर ही उनकी रक्षा कर सकता है।

विशेष :

  1. साहित्यिक खड़ी बोली में भावों की सफल अभिव्यक्ति है।
  2. भाषा प्रवाहमयी है।
  3. ‘सुख-सागर’ में सामासिक शब्दावली है।
  4. मिश्रित शब्दावली है, जिसमें तत्सम, तद्भव और विदेशी शब्दों का प्रयोग हुआ है।

4. इसके पहिले कि मैं इस ‘कच्चे चिट्टे’ को समाप्त करूू, मैं उन लोगों से क्षमा माँगता हूँ, जिन्हें मैंने छला है और फिर सिवाय मेंरे क्षमा माँगने और उनके क्षमा करने के और कोई चारा भी तो नहीं है। अपने पापों का (यदि आप उन्हें पाप समझें, मैं नहीं समझता) प्रायश्चित तो मैंने लिखकर कर लिया। परंतु समाप्त करते-करते मैं ऐसी कृतघ्नता का पाप नहीं कर सकता, जिसके प्रायश्चित का शास्त्र में भी विधान नहीं है। यह संग्रहालय चार महानुभावों के साहाय्य और सहानुभूति से बन सका है।

प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग में संकलित पाठ ‘कच्चा चिट्ठा’ से उद्धृत है। इसके लेखक ब्रजमोहन व्यास हैं। इस पाठ में लेखक ने प्रयाग में संग्रहालय स्थापित करने के लिए किए गए प्रयासों का रोचक शैली में वर्णन किया है। इस अंश में लेखक ने उन लोगों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की है, जिन्होंने संग्रहालय बनवाने में अपना योगदान दिया था।

व्याख्या – लेखक आत्मकथा के अंतिम अंश में कहता है कि वह उन लोगों से क्षमा माँगता है, जिन्हें उसने छला अर्थात् वस्तुओं के संग्रहण में उनके साथ धोखा किया। वह यह भी कहता है कि अब उसके पास क्षमा माँगने के और दूसरों के पास क्षमा कर देने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचता, क्योंकि जो काम होना था, वह पूर्ण हो चुका था। उसने जो भी गलत कार्य किए, अगर उन्हें पाप माना जाता है, तो उसने उन पापों का प्रायश्चित लिखकर कर लिया।

वह यह भी कहता है कि इसके समापन के साथ उन लोगों का यदि धन्यवाद नहीं करता, जिन्होंने इस संग्रहालय के निर्माण में सहायता की तो यह उसकी कृतघ्नता होगी। इस प्रायश्चित का शास्त्र में भी विधान नहीं है। यह संग्रहालय चार महानुभावों की सहायता और सहानुभूति के कारण अस्तित्व में आया।

विशेष :

  1. लेखक के मानवोचित गुणों का वर्णन हुआ है तथा उसका कृतज्ञता भाव प्रकट हुआ है।
  2. मिश्रित शब्दावली है।
  3. खड़ी बोली में सशक्त भावाभिव्यक्ति है।
  4. भाषा में प्रवाहमयता है।

5. मैं तो केवल निमित्त मात्र था। अरुण के पीछे सूर्य था। मैंने पुत्र को जन्म दिया, उसका लालन-पालन किया, बड़ा हो जाने पर उसके रहने के लिए विशाल भवन बनवा दिया, उसमें उसका गृह-प्रवेश करा दिया, उसके संरक्षण एवं परिवर्धन के लिए एक सुयोग्य अभिभावक डॉ० सतीश चंद्र काला को नियुक्त कर दिया और फिर मैंने संन्यास ले लिया।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग’ में संकलित पाठ ‘कच्या चिट्ठा’ से उद्धृत है। इसके लेखक ब्रजमोहन व्यास है। इस अंश में लेखक ने संग्रहालय को उचित हाथों में सौंपने और उसके उत्तरदायित्वों से मुक्त होने का वर्णन किया है।

व्याख्या – संग्रहालय की समुचित व्यवस्था कराने और उचित संरक्षक के हाथों में सौंपकर अपने कार्य से मुक्त होने के बाद लेखक कहता है कि उसने उस संग्रहालय की स्थापना में थोड़ा-सा ही योगदान दिया है। यह योगदान उसी तरह है, जैसे अरुण के पीछे सूर्य का हाथ था। लेखक कहता है कि उसने तो संग्रहालय की कल्पना की। उसकी नींव रखवाई और उसमें दुर्लभ वस्तुओं को रखा। इस प्रकार संग्रहालय अस्तित्व में आया।

उसके लिए आवश्यक वस्तुओं का प्रबंध करता रहा और ढेर सारी वस्तुएँ जमा हो जाने पर उसके लिए एक विशाल भवन बनवाकर उसका उद्घाटन करा दिया। लेखक ने उस संग्रहालय के पुष्पित और पल्लवित होने के लिए डॉ० सतीशचंद्र काला को नियुक्त किया। संग्रहालय की देख-रेख का दायित्व उन्हें सौंपकर वह कार्यमुक्त हो गया।

विशेष :

  1. साहित्यिक खड़ी बोली में भावों की सफल अभिव्यक्ति है।
  2. भाषा प्रवाहमयी है।
  3. तत्सम शब्दावली की बहुलता है।

शब्दार्थ और टिप्पणी :

  • पूर्वक्रमानुसार – पहले की ही तरह (same as before)।
  • किंवदंती – लोगों द्वारा कही गई (saying by people)।
  • सन्निकट – पास, नज़दीक (near)।
  • विषधर – विषैला (poisonous)।
  • इंगित – संकेत (hint)।
  • छूँछे – खाली हाथ, बिना कुछ लिए (empty hand)।
  • मृण्मूर्तियाँ – मिट्टी की मूर्तियाँ (idols made of clay)।
  • मनका – माला, मोती (pearl)।
  • चांद्रायण – चंद्रमा की कलाओं के हिसाब से आकार को घटाने-बढ़ाने को व्रत (a religious fast in which quantity of food increased or decreased according the moon)।
  • परखवैया – जाँचने वाले (one who makes a test)।
  • अंतर्धान – छिप जाना, गायब हो जाना (disappear) ।
  • प्रख्यात – बहुत प्रसिद्ध (well-known person) ।
  • चोर की दढ़ीी में तिनका – दोषी होने पर घबराहट में संकेत प्रकट करना (a guilty person shows his offence in bewilderment)।
  • माथा ठनकना – आशंका होना (suspicious)।
  • आघात – चोट (strike)।
  • नतमस्तक – झुककर (having head bowed down with respect)।
  • हस्बमामूल – ज्यों का त्यों, पहले जैसा ही (precisely the same)।
  • हियाँ – यहाँ (hear)।
  • नै पिहिस – नहीं पीया (did not drink)।
  • प्रान – प्राण (life)।
  • लेवाए जाइ – लिवा ले जाएँ, साथ ले जाएँ (take with him)।
  • करतूत – क्रियाकलाप (action)।
  • लारी – बस या छोटी सवारियाँ (bus or middle sized vehicle)।
  • इत्तिला – सूचना, खबर (information)।
  • रवैया – व्यवहार (behaviour)।
  • झख मारना – व्यर्थ प्रयास करना (to waste time for nothing)।
  • छठे-छमासे – कभी-कभी (now and then)।
  • डाँड़ – मेंड़ (mound between two field)।
  • निरा रही थी – खेत से खर-पतवार निकाल रही थी (take out weeds from crops)।
  • तमककर – गुस्से से (angrily)।
  • हर – हल (plough)।
  • निकरवावा – ज़मीन से निकलवाया (dig out from land)।
  • कउन – कौन (who)।
  • मुँह लगाना – व्यर्थ समय बरबाद करना (to be engaged with fruitless work) ।
  • ठनठनाया – खनकाया (to jingle)। दुई-दो (two)।
  • अंडसै – कठिनाई, रुकावट (obstruction)।
  • डेहरी – खाद्यान्न रखने हेतु मिट्टी का बड़ा-सा पात्र (a big drum made of clay in which grains are kept)।
  • बंडेर – छाजन के बीच रखी जाने वाली मोटी लकड़ी (a tall and strong log kept to support a hut)।
  • मने नाहीं करित – मना नहीं करती हूँ (do not refuse)।
  • ईमान डिग जाना – ललचा जाना (to be greedy)।
  • तबीयत – हृदय (temperament)।
  • छिछोर – ओछा या क्षुद्र व्यक्ति (wicked person)।
  • मस्तक ऊँचा करना – शान बढ़ाना (to glorify)।
  • सुरखाब के पर लगाना – सुंदरता जड़ी होना, विशेष बात होना (to be unique)।
  • बेसिर पैर की बातें – आधारहीन बातें (to talk without any rhyme and reason)।
  • उत्कीर्ण – खोदकर लिखा हुआ (written)।
  • दिल दूना होना – उत्साह बढ़ जाना (to be more zealous)।
  • मुँह में खून लगना – बुरी आदत पड़ जाना (to have some bad habit)।
  • अनुप्राणित – प्रेरित (motivated)।
  • खाक छानना – भटकना (to wander)।
  • हाकिम – अधिकारी (officer)।
  • एतराज – विरोध (disagree)।
  • फौज़दारी – मारपीट (quarrelling)।
  • आमादा होना – तत्पर हो जाना (to be bent upon)।
  • नोन-मिर्च लगाकर – बढ़ा-चढ़ाकर (exaggerate)।
  • करबट लेना – सजग होना (to be cautious)।
  • हस्तक्षेप – अनावश्यक दखलंदाज़ी (interference)।
  • बदन में आग लगाना – क्रोधित होना (to be very angry)।
  • आग्नेय अस्त्र – कठोर वचन (harsh talking)।
  • वरुणास्त्र – मधुर वचन (pleasing taking)।
  • पानी होना – द्रवित होना, पसीज जाना (to be compasionate)।
  • प्रतिवाद – विरोध (oppose)।
  • नितांत – बिलकुल (completely)।
  • उत्तरोतर – आने वाले दिनों में (coming days)।
  • खेद – दुख (sorrow)।
  • पी गए – सहन कर गए (tolerated)।
  • पुख्ता – मज़बूत (strong)।
  • अठपहल – आठ पहलू (तल) वाला (having eight surface)।
  • अबहिन – अभी (now)।
  • बिसात – औकात, पूँजी (capacity)।
  • क्षति – पूर्ति-नुकसान की भरपाई (to compensate)।
  • तास्रमूर्तियाँ – ताँबे की मूर्तियाँ (an idol made of copper)।
  • तालपत्र – पेड़ों के तनों पर लिखा हुआ (written on stem of trees)।
  • प्रलुब्ध – मोहित, ललचाया हुआ (to be enamoured)।
  • इक मारते फिरना – बेकार में घूमना (to wander here and there)।
  • छक्के छूटना – हिम्मत हारना (to lose one’s courage)।
  • नदारद – गायब (disappear)।
  • स्निग्ध – स्नेहयुक्त (affectionate)।
  • रुपये में तीन अठन्नी भुनाना – बहुत चालाक बनना (to be cunning)।
  • आशिक – अत्यंत गहराई से चाहने वाला (a lover)।
  • अपराहून – दोपहर बाद (afternoon)।
  • कसक – हृदय में रह-रहकर उठने वाली हल्की पीड़ा (griping pain)।
  • बटोरन – एकत्र करने से प्राप्त (collection)।
  • हथकंडा – तरीका, उपाय (method)।
  • लड़कौंध – छोटी आयु का (having young age)।
  • मुताबित – के अनुसार (according)।
  • अखरा – बुरा लगा (troublesome)।
  • आशातीत – आशा के अनुरूप (beyond expectations)।
  • दाद – प्रशंसा (praise)।
  • मौके की ताक – अवसर की प्रतीक्षा, घात (waiting for an opportunity)।
  • अहद-वादा, पक्का निर्णय (promise)।
  • न भूतो न भविष्यति – जो न पहले कभी हुआ हो और न कभी होगा (impossible)।
  • परिधि – दायरा, सीमा (boundry)।
  • हरज़ाना – जुर्माना (fine)।
  • साहाप्य – सहयोग (contribution)।
  • सामिल – शामिल (joining)।
  • पीर – पीड़ा (pain)। कपाट-किवाड़ (door)।
  • उधारै – खोलना (to put off)।
  • ठान – ज़िद (persistence)।
  • चारि – चार (four)।
  • मेरु – सुमेरु पर्वत (a mountain)।
  • परिवर्धन – विकास (development)।
  • पुष्पन – फूल खिल जाना (to blossom)।


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