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देवसेना का गीत Summary – कार्नेलिया का गीत Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 1 Summary
देवसेना का गीत, कार्नेलिया का गीत – जयशंकर प्रसाद – कवि परिचय
प्रश्न :
जयशंकर प्रसाद के जीवन एवं साहित्य का परिचय देते हुए उनकी काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन परिचय – जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी के प्रसिद्ध सुँघनी साहू के परिवार में 1888 में हुआ। वे कुछ वर्ष तक काशी के क्वींस कॉलेज में पढ़ने गए, पर परिस्थितिवश आठवीं कक्षा से आगे नहीं पढ़ सके। तब उन्होंने घर पर ही संस्कृत, हिंदी, अंग्रेज़ी, पालि और उर्दू का अध्ययन किया। भारतीय इतिहास और दर्शन में उनकी गहरी रुचि थी । माता – पिता और बड़े भाई के असामयिक निधन के कारण किशोरावस्था में ही प्रसाद को परिवार का उत्तरदायित्व सँभालना पड़ा। युवावस्था में उनकी पत्नी भी चल बसीं।
इन अवसादों और वेदनाओं का प्रभाव प्रसाद जी की रचनाओं में भी झलकता है। जयशंकर प्रसाद ने अपनी कविता ब्रजभाषा में शुरू की थी। उनकी ये कविताएँ ‘चित्राधार’ संग्रह में संकलित हैं । बाद में उन्होंने खड़ी बोली में लिखना प्रारंभ किया। उनकी कृति ‘कामायनी ‘ हिंदी का श्रेष्ठ महाकाव्य है। इसमें मनु, श्रद्धा और इड़ा के माध्यम से मानव विकास की कथा कही गई है। इनकी मृत्यु 14 जनवरी, 1937 में हुई।
रचनाएँ – प्रसाद की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं –
- काव्य – कृतियाँ – झरना, आँसू, लहर, कामायनी ।
- नाटक – अजातशत्रु, चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी।
- उपन्यास – कंकाल, तितली, इरावती।
- कहानी – संग्रह – आकाशदीप, आँधी, इंर्रजाल।
काव्यगत विशेषताएँ – कवि के साथ – साथ प्रसाद जी श्रेष्ठ कहानीकार, नाटककार और उपन्यासकार भी थे, परंतु वे मूलत: कवि थे, इसीलिए उनकी गद्य रचनाओं में भी काव्यगत सरसता मिलती है। उनका साहित्य शक्ति और ओज का साहित्य है। उसमें उत्माह, उमंग, प्रेम, करुणा तथा साँदर्य की सरसता है।
प्रसाद छायावादी काव्य के उन्नायकों में से हैं। छायावादी कविता की अतिशय काल्पनिकता, सौंदर्य का सूक्ष्म चित्रण, प्रकृति – प्रेम, देश – प्रेम, मानवीकरण और लाक्षणिकता उनकी कविताओं में स्पष्ट परिलक्षित होती हैं। प्रसाद जी में विषय की व्यापकता और चिंतन की गहराई भी बहुत है। उनकी रचनाओं में गौरवशाली प्राचीन भारतीय संस्कृति का चित्रण बहुत प्रभावी ढंग से हुआ है। सूक्ष्मतम मानवीय भावों की परख और उनकी अभिव्यंजना में प्रसाद जी बेजोड़ कवि थे।
प्रसाद जी की कविता में संस्कृत की मधुर और सरल शब्दावली का प्रयोग किया गया है। मेघ, चपला, गंध, मधुर आदि शब्द छायावादी कोमलता से युक्त हैं। प्रसाद जी की कविताएँ संगीत, लय, भावना व अनुभूति से ओतप्रोत हैं। कवि भावों का वर्णन इस प्रकार करता है कि पाठक की आँखों के सामने विविध चित्र उभरते हैं। सूक्ष्म व स्थूल चित्रों का चित्रण हुआ है; जैसे –
‘इस करुणा कलित हुदय में
अब विकल रागिनी बजती।
कवि ने मानवीकरण प्रक्रिया का सुंदर प्रयोग किया है। उन्होंने जड़ प्रकृति को मानव की तरह सक्रिय दिखाया है; जैसे’क्यों हाहाकार शब्दों में वेदना असीम गरजती।
Devsena Ka Geet Class 12 Hindi Summary
देवसेना का गीत :
देवसेना का गीत प्रसाद के स्कंदगुप्त नाटक से लिया गया है। देवसेना मालवा के राजा बंधुवर्मा की बहन थी। हुणों के आक्रमण से आर्यावर्त संकट में पड़ गया। बंधुवर्मा सहित उस परिवार के सभी लोगों को वीरगति प्राप्त हुई। बची हुई देवसेना भाई के स्वप्नों को साकार करने के लिए और राष्ट्रसेवा का व्रत लिए हुए जी रही थी। जीवन में देवसेना को स्कंदगुप्त की चाह थी, किंतु स्कंदगुप्त मालवा के धनकुबेर की कन्या (विजया) का स्वप्न देखते थे। जीवन के अंतिम मोड़ पर स्कंंदगुप्त देवसेना से विवाह करना चाहता है, किंतु देवसेना मना कर देती है। वह वृद्ध पर्णदत्त के साथ आश्रम में गाना गाकर भीख माँगती है और महादेवी की समाधि परिष्कृत करती है।
स्कंदगुप्त के अनुनय – विनय पर जब वह तैयार नहीं होती तो स्कंदगुप्त आजीवन कुँवारा रहने का व्रत ले लेता है। इधर देवसेना कहती है – ” “हदयय की कोमल कल्पना सो जा! जीवन में जिसकी संभावना नहीं, जिसे द्वार पर आए हुए लौटा दिया था, उसके लिए पुकार मचाना क्या तेरे लिए अच्छी बात है ? आज जीवन के भावी सुख, आशा और आकांक्षा – सबसे मैं विदा लेती हूँ।’ तब देवसेना यह गीत गाती है – ‘आह! वेदना मिली विदाई!’ देवसेना का गीत कविता में देवसेना अपने जीवन पर दृष्टिपात करते हुए अपने अनुभवों में अर्जित वेदनामय क्षणों को याद कर रही है। जीवन के इस मोड़ पर अर्थात् जीवन की संध्या बेला में वह अपने यौवन के क्रियाकलापों को याद कर रही है।
वह अपने यौवन के क्रियाकलापों को भ्रमवश किए गए कर्मों की श्रेणी में ही रख रही है और उस समय की गई नादानियों के पश्चातापस्वरूप उसकी आँखों से आँसू की अजस्त धारा बहती जा रही है। अपने आसपास उसे सबकी प्यासी निगाहें ही दिखाई पड़ती हैं और वह स्वयं को इनसे बचाने की कोशिश करती है, फिर भी जो उसके जोवन की पूँजी है, सारी कमाई है, वह उसे बचा नहीं सकी, यही विडंबना है, यही वेदना है। प्रलय स्वयं देवसेना के जीवनरथ पर सवार है। वह अपनी दुतमान दुर्बलताओं और हारने की निश्चितता के बावजूद प्रलय से लोहा लेती रही है। गीत के शिल्प में रची गई यह कविता वेदना के क्षणों में मनुष्य और प्रकृति के संबंधों को भी व्यक्त करती चलती है।
Karneliya Ka Geet Class 12 Hindi Summary
कार्नेलिया का गीत :
कार्नेलिया का गीत प्रसाद के चंद्रगुप्त नाटक का एक प्रसिद्ध गीत है। कार्नेलिया सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस की बेटी है। वह सिंधु के किनारे ग्रीक शिविर के पास वृक्ष के नीचे बैठी हुई भारत – भूमि के सौंदर्य को मुग्ध होकर निहार रही है। वह कहती है – “सिंधु का यह मनोहर तट जैसे मेरी आँखों के सामने एक नया चित्रपट उपस्थित कर रहा है। इस वातावरण से धीरे – धीरे उठती हुई प्रशांत स्निग्धता जैसे हृदय में घुस रही है। लंबी यात्रा करके जैसे मैं वहीं पहुँच गई हूँ, जहाँ के लिए चली थी।
यह कितना निसर्ग सुंदर है, कितना रमणीय है ? हाँ वह! आज वह भारतीय संगीत का पाठ देखूँ भूल तो नहीं गई ?’ तब उसके मुख से भारत देश की प्रशंसा भरा गीत फूट पड़ता है – ‘ अरुण यह मधुमय देश हमारा!’ इस गीत में हमारे देश की गौरव – गाथा तथा प्राकृतिक सौँदर्य को भारतवर्ष की विशिष्टता और पहचान के रूप में प्रस्तुत किया गया है। पक्षी भी अपने प्यारे घोंसले की कल्पना कर जिस ओर उड़ते हैं, वही यह प्यारा भारतवर्ष है। अनजान को भी सहारा देना और लहरों को भी किनारा देना हमारे देश की विशेषता है। यहाँ लोग दयालु हैं। रातभर के जगे तारे जब प्रातः नींद से बोझिल हो ऊँघने लगते हैं तब उषा सुंदरी सूर्य रूपी स्वर्ण कलश से सुख – सौंदर्य की वर्षा कर जनजीवन को आनंदित कर देती है।
देवसेना का गीत सप्रसंग व्याख्या
1. आह! वेदना मिली विदाई!
मैंने भ्रम – वश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई।
छलछल थे संध्या के श्रमकण,
आँसू – से गिरते थे प्रतिक्षण।
मेरी यात्रा पर लेती थी –
नीरवता अनंत अँगड़ाई।
शब्दार्थ :
- वेदना – व्यथा, पीड़ा (pain, distress)।
- विदाई – विदा होते समय मिलने वाली वस्तु (the money which is given at time of departure)।
- संचित – एकत्र किया हुआ (collected)।
- मधुकरी – भ्रमरी (large honeybee)।
- श्रमकण – पसीना, परिश्रम की बूँदें (the dew of sweats)।
- नीरवता – खामोशी, शांति (silence)।
- अनंत – अंतहीन, न रुकनेवाली (endless)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित कविता ‘देवसेना का गीत’ से उद्धृत है। इसके रचयिता छायावादी कविता के प्रमुख आधार स्तंभ जयशंकर प्रसाद हैं। यह गीत ‘स्कंदगुप्त’ नाटक से लिया गया है। इस गीत में स्कंदगुप्त के विवाह प्रस्ताव को ठुकराने के बाद देवसेना अपने जीवन के वेदनामय क्षणों को याद कर रही है।
व्याख्या – अपने हृदय की पीड़ा को गीत में मुखरित करती हुई देवसेना कहती है कि यह मेरा घोर दुर्भाग्य है जो विदाई की बेला में भी पीड़ा ही मिल रही है। मैंने जीवन भर जिन भावनाओं को भ्रमरियों की भाँति यत्नपूर्वक सहेजकर रखा था, उसे भीख रूप में लुटाती जा रही हूँ। इस बेला में संध्या भी अपने श्रमकण (पसीना) रूपी आँसू बहा रही है। मानो वह भी दुख प्रकट कर रही है। मेरी जीवन-यात्रा में एक विचित्र-सी अंतहीन शांति थी।
विशेष :
- देवसेना की व्यथा का सजीव चित्रण है।
- भाषा तत्सम शब्दावलीयुक्त है।
- छायावादी शैली है।
- उपमा अलंकार, अनुप्रास अलंकार तथा संध्या का मानवीकरण करने से मानवीकरण अलंकार है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
उपर्युक्त काव्यांश का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य-
– जीवन की सांध्यबेला में दुखी देवसेना की व्यथित मनोदशा का मार्मिक चित्रण किया गया है। उसे महसूस होता है कि उसका जीवन अंतहीन शांति से व्यथित रहा था।
शिल्प-सौंदर्य –
- तत्सम शब्दावलीयुक्त भाषा का प्रयोग है जो भावाभिव्यक्ति में समर्थ है।
- छायावादी शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर है।
- ‘आँसू-से गिरते थे’ में ‘उपमा’, ‘अनंत अँगड़ाई’ में ‘अनुप्रास’ तथा काव्यांश में ‘मानवीय अलंकार’ की छटा दर्शनीय है।
- ‘छलछल’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- वियोग पक्ष की अभिव्यंजना है। अतः वियोग शृंगार रस घनीभूत है।
2. श्रमित स्वप्न की मधुमाया में,
गहन-विपिन की तरु-छाया में,
पथिक उनींदी श्रुति में किसने
यह विहाग की तान उठाई।
लगी सतृष्या दीठ थी सबकी,
रही बचाए फिरती कबकी।
मेरी आशा आह! बावली,
तूने खो दी सकल कमाई।
शब्दार्थ :
- श्रमित – परिश्रम करके थका हुआ (tired, wearied)।
- मधुमाया – मधुर मोह (sweet affection)।
- गहन – सघन, घन (thick)।
- विपिन – जंगल (jungle)।
- तरु – वृक्ष (trees)।
- पथिक – यात्री (traveller)।
- उनींदी – नींद से बोझिल, ऊँघती हुई (dozy)।
- श्रुति – सुनने की प्रक्रिया (something which is heard)।
- विहाग – अर्धरात्रि में गाया जाने वाला एक गीत (a typical indian musical note)।
- सतृष्ण – तृष्णायुक्त, प्यासी (thirsty)।
- दीठ – दृष्टि, निगाह (sight)।
- बावली – बेवकूफ़, मूर्ख (an insane woman)।
- सकल – सारी (entire)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित कविता ‘देवसेना का गीत’ से उद्धुत है। इसके रचयिता छायावादी कविता के प्रमुख आधार स्तंभ जयशंकर प्रसाद हैं। यह गीत ‘स्कंदगुप्त’ नाटक से लिया गया है। इस गीत में स्कंदगुप्त के विवाह-प्रस्ताव को ठुकराने के बाद देवसेना अपने जीवन के वेदनामय क्षणों को याद करती है।
व्याख्या – अपने हृदय की विरह व्यथा को मुखरित करती हुई देवसेना कहती है कि जीवन में देखे गए स्वप्न थक गए हैं परंतु उनका मधुर मोह अब भी बना हुआ है अर्थात् उनके प्रति आसक्ति अब भी बनी हुई है। ऐसे समय में भी किस पथिक ने अपनी अलसाई आवाज़ में घने वृक्षों के बीच राग-विहाग (विदाई का गीत) छेड़ दिया है। मेरी साधना की ओर बहुत-सी ललचाई नजरें देख रही थीं और मैं उसे कब से दूसरों से बचाए फिर रही थी, किंतु आह मेरी वेदना! तू मूर्ख ठहरी और सारी कमाई लुटा बैठी।
विशेष :
- देवसेना की व्यथित मनोदशा का मार्मिक चित्रण है।
- तत्सम शब्दावली का प्रयोग है।
- छायावादी प्रभाव है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
उपर्युक्त काव्यांश का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य –
जीवन की सांध्यबेला में व्यथित हुदया देवसेना की मनोदशा का वर्णन है। इस समय उसे अपनी कमाई खो जाने का एहसास हो रहा है।
शिल्प-सौंदर्य –
- काव्यांश की भाषा तत्सम शब्दावलीयुक्त खड़ी बोली है, जो भावाभिव्यक्ति में सक्षम है।
- छायावादी दुख और निराशा घनीभूत हुई है।
- वियोग पक्ष की अभिव्यंजना है।
- अंतिम पंक्तियों में मानवीकरण अलंकार है।
- आशा को ‘बावली’ कहने से भाव प्रबलता आ गई है।
- वियोग शृंगार रस घनीभूत है।
3. चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर।
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर,
उससे हारी-होड़ लगाई।
लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे
इससे मन की लाज गँवाई
शब्दार्थ :
- प्रलय – विनाश (doom)।
- हारी – होड़ लगाना-हार कर भी प्रतिस्पर्धा करना (to compete after defeating)।
- थाती – अभानत, धरोहर (anything given in trust)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित कविता ‘देवसेना का गीत’ से उद्धृत है। इसके रचयिता छायावादी कविता के प्रमुख आधार स्तंभ जयशंकर प्रसाद हैं। यह गीत ‘स्कंदगुप्त’ नाटक से लिया गया है। इसमें स्कंदगुप्त के विवाह-प्रस्ताव को ठुकराने के बाद देवसेना की व्यथित मनोदशा का चित्रण है। वह अपने वेदनामय क्षणों को याद करती है।
व्याख्या – देवसेना अपनी व्यथा को मुखरित करती हुई कहती है कि मेरे जीवन रूपी रथ पर प्रलय सवार हो अपने पथ पर बढ़ता जा रहा था अर्थात् मैंने जीवन भर दुखों को झेला है और मैं उससे प्रतिस्पर्धा करती हुई आगे बढ़ती रही। (यह जानकर भी कि मैं शायद स्कंदगुप्त को प्राप्त न कर पाऊँ, फिर भी उसके प्रेम को मन में बसाया और वही प्यार अब मेरा हदय झकझोर रहा है।) अब तो मेरी करुणा हाहाकार कर उठी है। हे विश्व (स्कंदगुप्त)! मुझसे अब मेरा हृदय वापस ले लो अर्थात् इस दिल से तुम्हारे निकलने पर ही मुझे शांति मिल सकेगी। अब इसे सँभालना मेरे वश की बात नहीं। अब तो मेरे मन की लाज-शर्म सब जा चुकी है।
विशेष :
- देवसेना की विरह-विदगध दशा का चित्रण है। वह अपनी इस व्यथा का कारण स्कंदगुप्त का प्रेम मानती है।
- तत्सम शब्दावली युक्त खड़ी बोली का प्रयोग है।
- रूपक, अनुप्रास एवं पुनरुक्ति प्रकाश अलंकारों का सुंदर प्रयोग है।
- वियोग व्यथा घनीभूत है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
उपर्युक्त काव्यांश का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य :
जीवन की सांध्यबेला में व्यथित हृदया देवसेना की मनोव्यथा का सुंदर एवं मार्मिक चित्रण है। प्रेम को मुखरित करके मन की लाज गँवाने की बात कहने से विरहिणी की मनोदशा की प्रभावी अभिव्यक्ति हुई है।
शिल्प-सौंदर्य :
- तत्सम शब्दावली युक्त साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग है।
- ‘जीवन-रथ’ में रूपक, ‘ हारी-होड़’ में अनुप्रास तथा ‘हा-हा खाती’ में पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार है।
- होड़ लगाना, हा-हा खाना, लाज गँवाना मुहावरों का सुंदर प्रयोग है।
- काव्यांश विदाई गीत है, जिसमें संगीतात्मकता का गुण है।
- वियोग श्रृंगार रस घनीभूत है।
कार्नेलिया का गीत सप्रसंग व्याख्या
1. अरुण यह मधुमय देश हमारा!
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
सरस तामरस गर्भ विभा पर-नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर-मंगल कुंकुम सारा!
लघु सुरधनु से पंख पसारे-शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए-समझ नीड़ निज प्यारा।
शब्दार्थ :
- अरुण – प्रातःकालीन सूर्य की लालिमा (the scarlet sunrays at daybreak and sunset)।
- मधुम – य्रेमयुक्त, रसमय (loving)।
- क्षितिज – धरती और आकाश के मिलने का काल्पनिक स्थान (horizon)।
- तामरस – कमल (lotus)।
- गर्भ विभा – अंतर् की कांति (चमक) (the interior glow)।
- तरुशिखा – पेड़ों की फुनगी, पेड़ों का ऊपरी भाग (shoot)।
- कुंकुम – सिंदूर (saffron)।
- सुरधनु – इंद्रधनुष (rainbow)।
- पसारे – फैलाए (spread)।
- मलय समीर – मलय गिरि से आने वाली पवन (breeze from Malaya Mountain)।
- नीड़ – घोंसला (nest)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2 ‘ में संकलित कविता ‘कार्नेलिया का गीत’ से उद्धृत है, जिसके रचयिता सुप्रसिद्ध छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद हैं। यह गीत प्रसिद्ध नाटक ‘चंद्रगुप्त’ से लिया गया है। सिकंदर महान का सेनापति सेल्यूकस अपनी पुत्री कार्नेलिया का विवाह चंद्रगुप्त मौर्य से कर देता है। कार्नेलिया भारत की प्राकृतिक सुषमा को देख अभिभूत हो उठती है और उसके मुँह से गीत फूट पड़ता है।
व्याख्या – नाटक के नायक चंद्रगुप्त की नवपरिणीता पत्नी-कार्नेलिया प्रात:कालीन प्राकृतिक सौंदर्य से अत्यधिक प्रभावित होकर अपने उल्लसित उद्गारों को संगीतमयी स्वरलहरी में अभिव्यक्त करते हुए गाती है कि जहाँ सदा ही वसंतसा छाया रहता है, यह वही अरूण आभा वाला मेरा भारत देश है। यह वही देश है, जहाँ अनजान क्षितिज को भी एक आश्रय मिलता है, एक सहारा मिलता है। कार्ने लिया अपने शिविर के बाहर खुले स्थान पर प्रात:काल यह गीत गा रही है। अतः सम्मुख फैले प्राकृतिक सौंदर्य से मन-ही-मन प्रभावित ही नहीं, आहलादित भी हो उठी है।
इसलिए सूर्योदय की इस बेला में उसे दूर क्षितिज के गर्भ से ताँबे के रंग वाली जो लाली फूटती हुई दिखती है, उसमें वृक्षों की फुनगियों को, ऊँचाई पर लगी कोमल कोंपलों को मंद-मंद हिलते देखकर ऐसा भान होता है मानो वे मनोहर तर शिखाएँ मंथर-मंथर नृत्य कर रही हैं। क्षितिज से फूटती वह लालिमा सभी पेड़-पौधों और घास पर भी फैलने लगी है। रात भर सोए, मुरझाए उनके पत्ते फिर से तरो-ताजा हो गए हैं। कार्नेलिया को लगता है मानो हरियाली पर फिर से जीवन की ताज़गी, थिरकन और गतिशीलता बिखर गई है और प्रातःकाल की यह लालिमा मानो चारों ओर बिखरा हुआ कल्याणकारी सिंदूर ही है।
उषाकाल आते ही रातभर सोए पक्षी खुले आकाश में उन्मुक्त उड़ान भरने लगते हैं। उन्हें इस प्रकार कलरव करते और उड़ान भरते देखकर कारेलिया कहती है कि यह मेरा वही प्रिय भारत देश है, जिसे अपना प्यारा नीड़ जानकर पक्षी, मलय पर्वत से आने वाली शीतल-सुर्गधित पवन का सहारा लेकर इंद्रधनुष जैसे रंग-बिरंगे अपने सुंदर और छोटे-छोटे पंखों को पसारकर, फैलाकर उड़ते आते हैं।
विशेष :
- भारत के असीम प्राकृतिक सौंदर्य का मनोहारी वर्णन है।
- तत्सम शब्दों से युक्त साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग है।
- काव्यांश में गेयता का गुण विद्यमान है।
- ‘उपमा’ एवं ‘अनुप्रास अलंकार’ की छटा दर्शनीय है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
उपर्युक्त काव्यांश का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य :
भारत के अतुलित, असीम प्राकृतिक सौदर्य का चित्रण है. जिसे देख विदेशी भी चकित रह जाते हैं और गुणगान करने पर बाध्य हो जाते हैं। राष्ट्रीयता की भावना मुखरित है।
शिल्प-सौंदर्य :
- तत्सम शब्दावली युक्त खड़ी बोली भावाभिव्यक्ति में समर्थ है।
- ‘लघु सुरधनु से’ में उपमा अलंकार तथा ‘पंख पसारे’. ‘समीर सहारे’ में अनुप्रास अलंकार है।
- तरू शिखाओं का मंथर नृत्य करने में मानवीकरण अलंकार है।
- संपूर्ण छंद में संगीतात्मकता का गुण है।
- पक्षियों (विदेशियों) का पूरब (भारत) की ओर आने से भाषा में प्रतीकात्मकता प्रकट होती है।
- कवि की सुंदर कल्पना एवं सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति दर्शनीय है।
2. बरसाती आँखों के बादल-बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनंत की-पाकर जहाँ किनारा।
हेम कुंभ ले उषा सवेरे-भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मदिर ऊँघते रहते जब-जगकर रजनी भर तारा।
शब्दार्थ :
- अनंत – अंतहीन (सागर) (endless)।
- हेम – कुंभ-सोने का घड़ा (golden pitcher)।
- मदिर – मस्त करने वाली, मादक (intoxicating)।
- रजनी – रात्रि (night)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित कविता ‘कार्नेलिया का गीत’ से उद्धृत है। इनके रचयिता छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद हैं। यह गीत प्रसिद्ध नाटक ‘चंद्रगुप्त’ से लिया गया है, जिसमें कार्नेलिया द्वारा हमारे देश भारत के सौंदर्य का गुणगान किया गया है।
व्याख्या – भारत के अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य को देखकर कार्नेलिया कहती है कि यह मेरा वही प्यारा देश भारत है. जहाँ आँखों के बादल करुणा का जल अपने में भरे हुए बरसाती बनते हैं। भावार्थ यह है कि जहाँ प्रत्येक आँख में दूसरों के प्रति करुणा का भाव भरा रहता है और यह करुणा वर्षा ऋतु के बादलों-सी बरसती है तथा जिसके तटों पर अंतिम विश्राम पाने के लिए सागर की लहरें आ-आकर टकराती हैं।
उषाकाल को देखकर कार्नेलिया आगे सोचती है कि यह दही भारत देश है, जहाँ उदित बाल-रवि को स्वर्णकुंभ-सा हाथों में लेकर उषा रूपी नायिका सुबह-सवेर मेरे समस्त सुखों को धरती पर ढलकाती रहती है और वह भी उस समय जबकि रात-भर जागने के बाद आकाश के नक्षत्र उनींदे से, नींद की खुमारी में मदमस्त ऊँघते रहते हैं। भावार्थ यह कि आकाश में अभी नक्षत्र पूरी तरह से विलुप्त नहीं हुए होते, तभी पौ फटने के साथ-साथ ही मेरे लिए जीवन के सारे सुख जिसकी धरती पर बिखरे हुए से मिलते हैं, यह मेरा वही प्रिय भारत देश है।
विशेष :
- भारत की प्राकृतिक सुषमा का मनोहर वर्णन किया गया है।
- सरल, सहज, प्रवाहमयी भाषा का प्रयोग है।
- अनुप्रास, रूपक और मानवीकरण अलंकार है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
उपर्युक्त काव्यांश का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य :
- काव्यांश में भारत के अतुलित प्राकृतिक एवं प्रातःकालीन सौंदर्य का वर्णन है, जो किसी विदेशी के मुँह से गीतरूप में फूट पड़ा है।
- भारतीयों की दयालुता का वर्णन है।
- काव्यांश देश-प्रेम की भावना प्रगाढ़ करने में समर्थ है।
शिल्प-सौंदर्य :
- भाषा सहज, सरल, प्रवाहमयी है, जिसमें खड़ी बोली के शब्दों का प्रयोग है, जो भावाभिव्यक्ति में सक्षम हैं।
- ‘हेम कुंभ’ में रूपक अलंकार, ‘जब-जगकर’ में अनुप्रास अलंकार है।
- सुख उड़ेलती उषा का और नींद की खुमारी में ड़बे तारों का मानवीकरण किया गया है, अतः मानवीकरण अलंकार है।
- काव्यांश में गेयता का गुण विद्यमान है।